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राम मंदिर से जाति तक: यूपी की राजनीति का नया अध्याय, BJP के सामने आई नई चुनौती

यूपी की राजनीति (UP politics) के रंगमंच पर जाति और हिंदुत्व (hindutva) की गूंज सदियों से सुनाई देती आई है मगर 2014 के बाद इस गूंज ने एक नया स्वर धारण किया। पिछड़ी जातियों कुर्मी और कोयरी जैसे जिन्होंने यादवों के बाद अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कराई। उन्होंने 61 प्रतिशत वोट एनडीए को सौंप कर भारतीय राजनीतिक समीकरणों में भूचाल ला दिया। इन जातियों के वोटों की गूंज जो इंडिया गठबंधन को 27 प्रतिशत से भी अधिक पीछे छोड़ गई, सिर्फ वोटों का आंकड़ा नहीं बल्कि एक सामाजिक चेतना की अभिव्यक्ति थी।

इसी कड़ी में गैर-जाटव दलितों ने भी भाजपा को 29 प्रतिशत समर्थन दिया, वही उनका 56 प्रतिशत वोट इंडिया गठबंधन के खाते में गया। ये केवल संख्याएं नहीं, बल्कि उत्तर प्रदेश की जातिगत राजनीति (UP politics) के पैटर्न की मिसाल हैं, जहां हर वोट के पीछे एक इतिहास, एक उम्मीद, एक संघर्ष छिपा हुआ है।

दलितों और पिछड़ों की लामबंदी अब सिर्फ क्षेत्रीय राजनीति तक सीमित नहीं रह गई है बल्कि इसका प्रभाव राष्ट्रीय राजनीति के मूल स्वरूप को भी छू रहा है। 2014 से पहले उत्तर प्रदेश में क्षेत्रीय दलों के उदय ने भारतीय राजनीति में गठजोड़ की एक ऐसी राजनीति को जन्म दिया था, जिसमें कोई भी राष्ट्रीय पार्टी पिछड़ी जातियों के क्षेत्रीय दलों के समर्थन के बिना केंद्र में सरकार नहीं बना पाती थी।

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मगर सवाल यह है कि इस राजनीतिक बदलाव के पीछे ऐसा क्या हुआ कि चुनावी राजनीति का पूरा चरित्र ही बदल गया। उत्तर प्रदेश, जिसने पिछड़ों और दलितों की राजनीतिक चेतना को अपने मंच पर अभिव्यक्त किया वह कैसे एक नए अध्याय में कदम रख रहा है।

बीएसपी का ब्राह्मण प्रेम और कमजोर गढ़

सपा और बसपा ने न केवल राजनीतिक गठजोड़ से पिछड़ों और दलितों की राजनीतिक आकांक्षाओं को नई ताकत दी, बल्कि मुख्यमंत्री पद की गद्दी पर बैठ कर नए कृतिमान भी गढ़े। दोनों पार्टियों ने पिछड़ी और दलित जातियों को एक समरूप राजनीतिक इकाई मानने का मिथक स्थापित किया, वही उनके भीतर गहरे सामाजिक-आर्थिक विषमताओं और तनावों को कभी मुखरता नहीं मिली।

यहाँ तक कि 1990 के दशक के रामजन्मभूमि आंदोलन के दौरान, जब उत्तर प्रदेश का राजनीतिक परिदृश्य आग की तरह जल रहा था, तब भी पिछड़ों और गैर-जाटवों की भूमिका निर्णायक रही। वह आंदोलन जो सांस्कृतिक-धार्मिक उन्माद के साथ राजनीतिक ताकत का रूप ले रहा था, उसके प्रमुख नेतृत्व में मध्यप्रदेश की लोधी जाति की उमा भारती, कुर्मी जाति के विनय कटियार जैसे ठोस चेहरे थे।

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गोरखनाथ पीठ के महंत अवैधनाथ का राजपूत होने के बावजूद पिछड़ी जातियों में गहरा प्रभाव था, जो उस समय की राजनीति में सामंती और जातीय शक्ति संघर्ष की एक तस्वीर पेश करता है।

1990 में जब भाजपा को पूर्ण बहुमत मिला तब कल्याण सिंह जो स्वयं लोधी जाति से थे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। यह दौर अयोध्या को न केवल धार्मिक केंद्र, बल्कि राजनीतिक शक्ति का गढ़ बनाने का आरंभ था। यहां से हिंदुत्व (hindutva) ने राजनीतिक सत्ता की एक नई धुरी की तरह काम करना शुरू किया।

राजनीति के टूटते संगम और बसपा का पतन

सपा और बसपा की राजनीति जब सत्ता की महत्वाकांक्षा के शिकार हुई, तब क्षेत्रीय प्राथमिकताओं को पीछे धकेल दिया गया। बसपा, जो 2000 के दशक में दलित वोटों के एकमुश्त गढ़ के रूप में उभरी थी, तब अपनी सामाजिक इंजीनियरिंग के टूटने के संकट से जूझने लगी।

2007 की बसपा सरकार में बढ़ते ब्राह्मण वर्चस्व ने दलितों के बीच समरूपता को तोड़ दिया। चमार समुदाय, जो बसपा के मजबूत वोट बैंक थे, कई बार संरक्षण से वंचित रह गए। भूमिधारी जाति के विधायकों द्वारा अपने समुदाय के लिए खास संरक्षण और लाभ ने दलितों के बीच विभाजन को और गहरा कर दिया। ऐसे में खेतिहर मजदूरों और दलित कार्यकर्ताओं के लिए ऊंची जातियों और ओबीसी किसानों द्वारा उत्पीड़न की खबरें छुपाना भी कठिन हो गया।

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यह राजनीतिक (UP politics) संकट और संगठनात्मक कमजोरी तब और बढ़ गई जब मायावती ने पार्टी में अन्य नेताओं को उभरने नहीं दिया। उनकी सतर्कता ने दलित नेतृत्व को बंधन में बांध दिया और कई मजबूत नेता पार्टी छोड़ कर चले गए। इनमें वे नेता भी शामिल थे जिनके पास दलितों के साथ पिछड़ों और सवर्णों को जोड़ने की सामर्थ्य थी।

बसपा की यह गिरावट उत्तर प्रदेश के राजनीतिक मानचित्र पर एक टूटी हुई नाव की तरह प्रतीत हुई जो धीरे-धीरे अपनी नैया डूबा रही थी। इसी का खामियाजा पिछड़ी जातियों को भुगतना पड़ा जो अब भाजपा की ओर रुख कर रही थीं।

भाजपा और हिंदुत्व (hindutva) की नई रणनीति क्या

बहुजन और सर्वजन के बिखरते मेल ने 2014 और 2017 के चुनावों में भाजपा को पिछड़ों और दलितों के बीच एक नया समरूप राजनीतिक आधार दिया। इन वोटरों में विशेष रूप से शहरी, शिक्षित, मध्यम वर्गीय और तकनीकी रूप से जागरूक युवा शामिल थे जो सोशल मीडिया और डिजिटल मीडिया के माध्यम से भारतीय राजनीति की नई भाषा समझने लगे थे।

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मगर 2024 के लोकसभा चुनाव में हिंदुत्व (hindutva) की गति मंद पड़ती दिख रही है। अयोध्या और वाराणसी जैसे भाजपा के प्रमुख हिंदुत्व केंद्रों में जनाधार कमजोर पड़ने लगा है। राम मंदिर के निर्माण, चौड़ी सड़कों और अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट के विकास के पीछे छुपा विस्थापन और स्थानीय लोगों की उपेक्षा भाजपा के लिए नई चुनौती बन गया है।

वाराणसी की गलियों में भी भाजपा के प्रदर्शन में गिरावट नजर आई जहां समाजवादी पार्टी ने अपनी वापसी की तस्वीर उकेरी। यह वही क्षेत्र है जहां 2014 में जातिगत समीकरण ‘यादव बनाम गैर यादव, जाटव बनाम गैर जाटव’ ने भाजपा को जीत दिलाई थी।

2027 का चुनाव मेंहिंदुत्व की चुनौती और जातिगत आकांक्षाएं

आने वाले विधानसभा चुनाव (assembly elections 2027) में हिंदुत्व का जनाधार दोध्रुवीय होता दिख रहा है। एक ओर भाजपा धार्मिक प्रतीकों, मंदिरों और रामराज्य जैसे सांस्कृतिक विमर्शों के जरिए सांस्कृतिक एकता बनाने की कोशिश कर रही है। वहीं दूसरी ओर जातिगत और वर्गीय हितों की बढ़ती प्राथमिकताएं इस सांस्कृतिक एकता में दरार डाल रही हैं।

अभी तक हिंदुत्व की परियोजनाओं में जातिगत समीकरणों के लिए स्पष्ट रणनीति नजर नहीं आ रही। खासकर उन पिछड़ी जातियों के लिए जो 2022 में सपा और बसपा का साथ छोड़ भाजपा के साथ आई थीं। अगर भाजपा इस जातिगत समीकरणों की सर्जना में विफल रहती है, तो 2027 के उत्तर प्रदेश चुनाव में उसका जनाधार कमजोर पड़ सकता है।

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