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Bihar Election: किंगमेकर की तलाश में क्या जातिगत जनगणना बदलेगी सत्ता का समीकरण

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Bihar Election: बिहार की सियासत (Bihar Politics) को अगर एक शब्द में बयां करना हो तो वो होगा उबाल। यहां सत्ता की रेस कभी ठंडी नहीं होती न ही मुद्दे पुराने पड़ते हैं। हर चुनाव नया चेहरा नया वादा और सबसे अहम – नई जातीय समीकरण की बिसात लेकर आता है। और अब जब 2025 के विधानसभा इलेक्शन (Election) की आहट तेज हो रही है एक बार फिर जातीय जनगणना (Caste Census) का मुद्दा सियासत की धुरी बन चुका है।

ये कोई साधारण राजनीतिक जुमला नहीं बल्कि ऐसा विमर्श है जो गांव-गांव में चर्चा का विषय है चाय की दुकानों से लेकर ट्विटर स्पेस तक हर जगह यही सवाल गूंज रहा है हम कितने हैं।

जातीय जनगणना में आंकड़ों की जंग या सामाजिक न्याय की मांग

जातीय जनगणना (Caste Census) की मांग नई नहीं है। मगर इस बार इसकी गंभीरता पहले से कहीं ज्यादा है। कारण साफ है – अब बात सिर्फ प्रतिनिधित्व की नहीं हक और हिस्सेदारी की है। यह मुद्दा भावनाओं आंकड़ों और पहचान का ऐसा घालमेल बन चुका है जिसे नज़रअंदाज करना अब किसी भी दल के लिए आसान नहीं।

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राहुल गांधी ने इस मुद्दे को हवा दी है अपने नारे से – जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी भागीदारी। ये नारा सिर्फ एक लाइन नहीं बल्कि कांग्रेस की नई पॉलिटिकल स्ट्रैटेजी (Political Strategy) की घोषणा है। पार्टी अब खुद को बिहार में पिछड़ों, अति-पिछड़ों और दलितों की सच्ची आवाज के तौर पर प्रोजेक्ट कर रही है।

समाजवादी पार्टी की चुपचाप मगर चालाक एंट्री

हालांकि अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी (Samajvadi Party) का बिहार में सीधा प्रभाव सीमित है मगर जातीय जनगणना(Caste Census) जैसे भावनात्मक मुद्दे पर उनकी एंट्री सधी हुई और रणनीतिक है। UP में अपने जातीय गठबंधन के सफल प्रयोग को देखते हुए सपा अब बिहार में भी उसी मॉडल को आज़माना चाहती है। याद रखिए बिहार की राजनीति में भावनाओं का कॉकटेल जब सही समय पर परोसा जाता है तो वो बड़े-बड़ों की कुर्सी हिला देता है।

बीजेपी की दोहरी चाल: OBC नेताओं को आगे पर नैरेटिव भी बरकरार

अब बात करते हैं उस पार्टी की जिसने पिछले एक दशक में बिहार की राजनीति को नई दिशा दी – भारतीय जनता पार्टी (BJP)। बीजेपी इस मुद्दे पर काफी सतर्क है। पार्टी चाहती है कि उसका OBC वोटबैंक बना रहे इसलिए वह नंदकिशोर यादव, सम्राट चौधरी जैसे चेहरों को आगे कर रही है। मगर साथ ही पार्टी अपने हिंदुत्व नैरेटिव से भी समझौता नहीं करना चाहती।

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यही वजह है कि बीजेपी जातीय जनगणना( Caste Census) पर खुलकर समर्थन नहीं कर रही मगर खुला विरोध भी नहीं कर रही। पार्टी जानती है कि अगर जातिगत आंकड़े सामने आ गए तो उसके ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ की दीवारों में दरार पड़ सकती है।

क्या लालू यादव की सोशल इंजीनियरिंग का जादू फिर लौटेगा

बात बिहार की जातीय राजनीति की हो और लालू प्रसाद यादव का नाम न आए ये तो जैसे चाय में अदरक भूल जाने जैसा होगा। लालू की सोशल इंजीनियरिंग (Social Engineering) ने कभी ‘MY (मुस्लिम-यादव)’ समीकरण को बिहार की सत्ता का परचम बना दिया था। अब उनके उत्तराधिकारी तेजस्वी यादव इस मुद्दे को लेकर फ्रंटफुट पर हैं। राजद (RJD) का दावा है कि हम जातीय जनगणना के जनक हैं कांग्रेस-बीजेपी तो सिर्फ फायदा लेना चाहती हैं। हालांकि जनता इस बयानबाजी को कितनी गंभीरता से लेती है यह 2025 के नतीजों में ही नजर आएगा।

सिर्फ संख्या नहीं राजनीतिक ‘ब्लूप्रिंट’

अगर जातीय जनगणना (Caste Census) के आंकड़े चुनाव से पहले आ जाते हैं तो ये सिर्फ डेटा नहीं होगा। ये आंकड़े हर पार्टी के टिकट वितरण से लेकर घोषणापत्र तक सब कुछ बदल देंगे। कौन सी जाति कितनी संख्या में है, किस इलाके में कौन किसके पक्ष में है और आरक्षण की सीमा और उसमें पुनर्विचार, ये सब चुनावी रणनीति का हिस्सा बन जाएगा। और याद रखिए बिहार में जातीय गणना का मतलब है – चुनावी गणित की नयी किताब।

कांग्रेस-सपा बनाम बीजेपी, टकराव की जमीन तैयार

इस पूरे खेल में कांग्रेस और सपा जहां खुद को सामाजिक न्याय (Social Justice) के नायक के रूप में स्थापित कर रही हैं वहीं बीजेपी इसे एक तरह का “सामाजिक विभाजन” बताकर जनता को सतर्क करने की कोशिश में है।

बीजेपी का तर्क है कि जातीय जनगणना से समाज में बंटवारा होगा। मगर विपक्ष का पलटवार है कि सच्चाई सामने आने से डर किसे लग रहा है। ये टकराव अब सिर्फ विचारधारा का नहीं बल्कि राजनीतिक अस्तित्व का बनता जा रहा है।

नया मैदान पुरानी लड़ाई

आज की राजनीति में सोशल मीडिया वो अखाड़ा बन गया है जहां से नैरेटिव गढ़े भी जाते हैं और तोड़े भी। जातीय जनगणना पर #जितनीसंख्या #समानभागीदारी #OBCrights जैसे हैशटैग लगातार ट्रेंड कर रहे हैं। व्हाट्सएप ग्रुप्स में इस पर वीडियो शेयर हो रहे हैं। पूर्व में ट्विटर और अब एक्स पर पत्रकार, एक्टिविस्ट और आम लोग खुलकर पक्ष-विपक्ष में बोल रहे हैं। यूट्यूब (You Tube) पर तमाम लोकल चैनल्स और इंफ्लुएंसर इस मुद्दे पर लाइव डिबेट कर रहे हैं। यानी यह लड़ाई सिर्फ संसद या विधानसभा की नहीं बल्कि डिजिटल गली-मोहल्लों तक पहुंच चुकी है।

साल 2025 बिहार की सियासत का टर्निंग प्वाइंट

साल 2025 का विधानसभा इलेक्शन(Vidhansabha Election) सिर्फ सत्ता परिवर्तन नहीं लाएगा बल्कि यह तय करेगा कि बिहार का सामाजिक-राजनीतिक चेहरा अगले दशक में कैसा होगा। क्या पिछड़े वर्गों को नई ताकत मिलेगी, क्या पुराने गठबंधन टूटेंगे और नए समीकरण बनेंगे, क्या जाति आधारित राजनीति को नया वैचारिक आधार मिलेगा या फिर जनता इन सबके पार जाकर किसी नए एजेंडे को चुनेगी।

आंकड़ों से आगे की राजनीति

जातीय जनगणना पर बहस जरूरी है। मगर उससे भी जरूरी है – इसे संभालने की समझदारी। यह मुद्दा जितना ताकतवर है उतना ही विस्फोटक भी। अगर इसे राजनीति का साधन बनाकर सिर्फ वोटबैंक की भूख मिटाई गई तो सामाजिक ताना-बाना खतरे में पड़ सकता है।

तो अगली बार जब आप किसी चाय की दुकान पर बैठें और यह चर्चा चले – जातीय जनगणना( Caste Census) से फायदा किसे होगा। तो ये मत भूलिए कि इसका जवाब सिर्फ सियासत में नहीं समाज के बदलते मानस और मूल्यों में छुपा है।

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