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World Environment Day 2025: पर्यावरण दिवस या चेतावनी दिवस, हमारी जीवनशैली पर एक सवाल

World Environment Day 2025: “क्षिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा।” हमारे ऋषियों-मुनियों ने न जाने कितने हज़ार साल पहले ये सूत्रवाक्य दिए थे जो न सिर्फ आध्यात्मिक दृष्टिकोण से गूढ़ हैं बल्कि वैज्ञानिक स्तर पर भी चौंका देने वाले हैं। पाँच तत्व पृथ्वी (क्षिति), जल, अग्नि (पावक), वायु (समीर) और आकाश (गगन) यही हमारे शरीर की रचना करते हैं। और जब तक ये तत्व संतुलित रहते हैं शरीर सेहमंद रहता है। इनका संतुलन बिगड़ते ही जीवन की नींव हिल जाती है। परंतु सवाल ये है कि हम आधुनिक मानव इस संतुलन की कितनी परवाह करते हैं।

शरीर और ब्रह्मांड का संबंध है खास (relationship between the body and the universe is special)

जैसे पिंड (शरीर) वैसे ही ब्रह्मांड ये केवल दार्शनिक वाक्य नहीं हैं बल्कि हमारे पूर्वजों की उस पर्यावरणीय दृष्टि को दर्शाते हैं जिसमें मनुष्य और प्रकृति एक-दूसरे से अलग नहीं बल्कि परस्पर जुड़े हुए माने गए हैं। यदि पर्यावरण प्रदूषित होगा, तो शरीर बीमार होगा। यदि वनों का ह्रास होगा, तो प्राणवायु यानी ऑक्सीजन का संकट आएगा। यदि जलाशय सूखेंगे, तो जीवन की धारा थम जाएगी। इसीलिए भारत की परंपरा में प्रकृति की पूजा होती रही है नदी माँ बनती है, वृक्ष देवता होते हैं, पर्वत पूज्य हैं और पशु हमारे सहचर।

जीवन की पहली शर्त; प्राणवायु (first condition of life; oxygen)

वायु में मौजूद प्राणवायु यानी ऑक्सीजन, मानव जीवन की पहली आवश्यकता है। पर क्या हमने कभी सोचा है कि यह ऑक्सीजन आए कहां से रही है। जवाब है वृक्षों से। लेकिन जिस रफ्तार से पेड़ काटे जा रहे हैं उस स्पीड से ऑक्सीजन का संकट गहराना तय है। दूसरी ओर कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर बढ़ रहा है। ये वही गैस है जिसे पेड़-पौधे अवशोषित कर बैलेंस बनाए रखते हैं। मगर जब पेड़ ही नहीं बचेंगे तो यह संतुलन कैसे बचेगा।

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आज ग्लोबल वॉर्मिंग की चर्चा हर मंच पर है लेकिन समाधान की दिशा में हमारी गति धीमी है। अगर इसी तरह CO₂ बढ़ता रहा, तो न सिर्फ तापमान बढ़ेगा बल्कि हिमखंड पिघलेंगे, समुद्री जलस्तर बढ़ेगा और तटीय शहर डूब सकते हैं।

जीवन की दूसरी अनिवार्यता है जल (Water is the second necessity of life)

जल संकट पर हम सब चर्चा करते हैं, लेकिन अमल में क्या करते हैं। भारत में सिंचाई, उद्योग, घरेलू कार्य और यहां तक कि शौचालय भी भूजल (Groundwater) पर निर्भर हैं। और हर साल ये भूजल 1-2 मीटर तक नीचे जा रहा है। इसका परिणाम है सूखते कुएँ, बंजर होते खेत और पीने के पानी का संकट।

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दक्षिण अफ्रीका का केपटाउन इसका एक ज्वलंत उदाहरण है। यहां टैंकर से पानी पहुँचाया जा रहा है। ये व्यवस्था कब तक टिकेगी, भारत के भी कई हिस्सों खासकर उत्तर भारत और दक्षिणी प्रायद्वीप में यही स्थिति बनती जा रही है।

इसका समाधान है जल संचयन (Rainwater Harvesting), पारंपरिक जलस्रोतों का पुनर्जीवन और वृक्षारोपण।

वनों की कटाई और पहाड़ी क्षेत्रों का संकट (Deforestation and the endangerment of hilly areas)

हिमालय क्षेत्र में जिस तरह जंगल काटे जा रहे हैं वो खतरनाक संकेत दे रहा है। पेड़ सिर्फ ऑक्सीजन ही नहीं देते बल्कि पहाड़ियों की मिट्टी को भी पकड़कर रखते हैं। जब पेड़ कटते हैं तो भू-स्खलन (Landslides) बढ़ते हैं, जिससे जान-माल का भारी नुकसान होता है।

आज पहाड़ी ढलानों पर भारी भवन बन रहे हैं। सड़कों की अंधाधुंध खुदाई हो रही है और जल प्रवाह की दिशा बदली जा रही है। परिणाम स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र का विनाश।

एक बार अगर मिट्टी बह जाए तो फिर उस उपजाऊ मिट्टी को दोबारा बनने में हजारों साल लग सकते हैं। इस खतरे को रोकने के लिए वृक्षारोपण, बेतरतीब निर्माण पर रोक और पारंपरिक जल प्रबंधन का पुनर्जीवन जरूरी है।

सनातन परंपरा में कुदरत का अहम रोल ( Nature plays an important role in Sanatan tradition)

हमारे पूर्वज जंगलों को केवल संसाधन नहीं आश्रम मानते थे। जीवन के वानप्रस्थ आश्रम में ऋषिगण वनों में निवास करते थे— प्रकृति के समीप, आत्मचिंतन और समाज सेवा के लिए।

वेदों में वनस्पति माता शब्द आता है। तुलसी, बेलपत्र, दूब, अशोक, पीपल जैसे वृक्षों को पूजा में स्थान मिला। यहां तक कि गाय के गोबर, गौमूत्र और मिट्टी को भी शुद्धिकारक माना गया। कहने का अर्थ है कि हमारी संस्कृति का मूल ही प्रकृति से जुड़ा था। लेकिन आज हम उस मूल से दूर हो गए हैं।

पर्यावरण दिवस रस्म अदायगी या चेतना का अवसर (World Environment Day 2025)

हर साल 5 जून को ‘विश्व पर्यावरण दिवस’ आता है। स्कूलों में भाषण होते हैं, ऑफिसों में सेमिनार और सोशल मीडिया पर हरे-भरे पोस्ट। लेकिन क्या इसके बाद हमारी जीवनशैली में कोई बदलाव आता है।

ओजोन परत में छेद, ग्लोबल वॉर्मिंग, एसिड रेन ये सब सिर्फ किताबों के शब्द बनकर रह गए हैं। जबकि प्रदूषण अब उन सीमाओं को लांघ चुका है जो पहले सिर्फ चेतावनी हुआ करती थीं।

जैव विविधता का संकट, एक अदृश्य खतरा (Biodiversity crisis, an invisible threat)

क्या आपने कभी गौर किया है कि अब गाँवों में चिड़ियों की चहचहाहट कम क्यों हो गई है। गिद्धों का दिखना अब दुर्लभ क्यों है। कारण- जहरीला पर्यावरण, रसायनयुक्त खाद्य श्रृंखला और मनुष्य की स्वार्थी सोच। पशु-पक्षियों के बिना न तो कृषि बचेगी, न जीवन। परंपरा में पशु सेवा पुण्य मानी जाती थी, आज शहरीकरण ने उन्हें सड़क पर बेसहारा कर दिया है।

इन सब का समाधान क्या

हम जिस संस्कृति से निकले हैं वही हमारे संकट का समाधान है। “जीवहि जीव आधार, बिना जीव जीवत नहीं” ये सिर्फ कविता नहीं, चेतावनी है।

आज हमें जरूरत है वृक्षारोपण को अभियान नहीं जीवनशैली बनाने की। वर्षा जल संचयन को पुनर्जीवित करने की। भूजल पर निर्भरता को कम करने की। एसी-फ्रिज की लत छोड़कर प्राकृतिक ठंडक अपनाने की। शहरों को नहीं, गाँवों को समृद्ध बनाने की सोचने की।

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हमारे पूर्वजों ने सिखाया था कि प्रत्येक जीव में ईश्वर का अंश है। इसीलिए भारत की संस्कृति में वृक्ष, नदियाँ, पर्वत, पशु, पक्षी सभी पूजनीय हैं। यह पूजन केवल आस्था का विषय नहीं था बल्कि कुदरत के साथ समरसता का विज्ञान था।

आज जब इंसान अपने ही विनाश के मार्ग पर चल पड़ा है तब जरूरत है कि हम वापस अपनी जड़ों की ओर लौटें। पर्यावरण संरक्षण किसी सरकार, संस्था या एक दिन का कार्य नहीं ये हम सभी की साझी जिम्मेदारी है।

यदि मानव जाति को बचाना है तो उसे अपनी संस्कृति को बचाना होगा और संस्कृति तभी बचेगी, जब प्रकृति बचेगी।

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