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करणी सेना आंदोलन से जाति जनगणना तक, यूपी की राजनीति में ध्रुवीकरण का खेल

यूपी में सियासी दल इन दिनों ‘मिशन 2027’ के पटल पर सजीव हो रहे हैं। हर पार्टी की रणनीति में एक नया जुनून और तल्लीनता दिख रही है। विधानसभा इलेक्शन (assembly elections) की रणभूमि में उतरने की तैयारी अपने चरम पर है।

साल 2017 के बाद से सत्ता से दूर चल रही समाजवादी पार्टी (सपा), पिछले लोकसभा इलेक्शनों (Lok Sabha elections) के बाद अपने पीछड़े-दलित-अल्पसंख्यक (पीडीए) गठजोड़ को लेकर फिर से मजबूत स्थिति में दिख रही है।

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लोकसभा इलेक्शन (Lok Sabha elections) में मिली जबरदस्त जीत ने इस फार्मूले को बल दिया है। सपा ने बीजेपी को कड़ी टक्कर देते हुए सियासी परिदृश्य में अपनी पैठ फिर से जमा ली है। वहीं, योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली सत्तारूढ़ बीजेपी भी अपने हिंदुत्व और विकास कार्यों के सहारे 2027 का विजयी अभियान तेज कर रही है। दो प्रमुख राजनीतिक ताकतें आमने-सामने हैं और उनकी रणनीतियों की गूंज पूरे उत्तर प्रदेश में सुनाई दे रही है।

अखिलेश के पीडीए पर बीजेपी की तीखी नजरें

31 मई का दिन उत्तर प्रदेश के लिए ऐतिहासिक रहा। अहिल्याबाई होलकर की जयंती पर आयोजित समारोहों का भव्य आयोजन पहले कभी इस स्तर पर नहीं देखा गया। महाराष्ट्र के सूखे और घास से लबालब खेतों के बीच पली-बढ़ी अहिल्याबाई होलकर, जो इंदौर की महान महारानी थीं, अपनी गहन राजनीतिक दूरदर्शिता और वीरता के लिए जानी जाती हैं। किसान परिवार में जन्मी, धनगर (गड़ेरिया-चरवाहा) जाति से संबंधित अहिल्याबाई के प्रति यह सम्मान दर्शाता है कि राजनीति अब पुराने बंधनों से परे जातिगत राजनीति के नए रंग उकेर रही है।

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बीजेपी ने अहिल्याबाई की जयंती मनाने के लिए उन जिलों को चुना जहां पाल-बघेल-गड़ेरिया जाति की बड़ी आबादी है। यह इलाके आगरा और अलीगढ़ मंडल में फैले हुए हैं, जो राजनीतिक महत्व के केंद्र बने हुए हैं। मुख्य समारोह आगरा में आयोजित हुआ, जिसमें उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। इस आयोजन के जरिये बीजेपी ने इन पिछड़ी जातियों को साधने की सूक्ष्म कोशिश की है, जो सीधे तौर पर सपा के पीडीए गठबंधन को चुनौती देती है।

तराई के बहराइच में राजनीति की गरमाहट

हर साल मई में बहराइच जिले में सैयद सालार मसूद गाजी के मेला की खास परंपरा रही है, जो इस बार योगी सरकार की कानूनी पाबंदियों की भेंट चढ़ गया। कानून-व्यवस्था के नाम पर इस ऐतिहासिक मेला को रोका जाना राजनीतिक बयानबाजी का विषय बना। वहीं, बीजेपी की सहयोगी सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) 10 जून को इसी जगह महाराजा सुहेलदेव राजभर के विजय दिवस का भव्य आयोजन करने जा रही है। यह आयोजन राजभर जाति की राजनीतिक और सांस्कृतिक पहचान को मज़बूत करने की कोशिश है।

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महाराजा सुहेलदेव की उस ऐतिहासिक लड़ाई की याद दिलाना, जिसमें उन्होंने 1034 में महमूद गजनवी के सेनापति सैयद सालार गाजी को परास्त किया था, न केवल राजभर जाति के लिए गर्व का विषय है, बल्कि बीजेपी के हिंदू वोट बैंक के ध्रुवीकरण की भी रणनीति है। यह मेले का मुख्य अतिथि योगी आदित्यनाथ होंगे और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के वर्चुअल उद्घाटन की संभावनाएं भी चर्चा में हैं। पूर्वांचल के इन ओबीसी वर्ग के जिलों में राजभरों की मौजूदगी बीजेपी के लिए रणनीतिक फायदा साबित हो रही है।

जाट राजनीति में बीजेपी की चाल

बीजेपी ने 2022 के विधानसभा इलेक्शन (assembly elections) से पहले एक और सटीक कदम उठाया था। अलीगढ़ में खुले राजकीय विश्वविद्यालय का नाम जाट समुदाय के महानायक राजा महेंद्र प्रताप सिंह के नाम पर रखा गया। राजा महेंद्र प्रताप सिंह न केवल जाट समाज के लिए एक प्रेरणा थे, बल्कि उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और काशी हिंदू विश्वविद्यालय को जमीन भी दी थी। इस ऐतिहासिक नामकरण ने अलीगढ़ और आसपास के जाट बहुल इलाकों में बीजेपी को व्यापक समर्थन दिलाया।
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बुलंदशहर, मथुरा जैसे जिलों में भी जाट वोट बैंक पर बीजेपी की पकड़ मजबूत हुई, जहां सपा के साथ जाट नेता जयंत चौधरी का गठबंधन था। इस जीत ने दिखाया कि कैसे सूक्ष्म जातिगत समीकरणों को समझ कर चुनावी रणनीति बनाई जाती है।

करणी सेना आंदोलन और राजनीति का खेल

सपा सांसद रामजी लाल समुन के विवादित बयान के बाद आगरा राजनीति का बड़ा केंद्र बन गया था। राजपूत समुदाय की करणी सेना ने सुमन की घर-घर घेरेबंदी की, जिसने ध्रुवीकरण की राजनीति को हवा दी। हालांकि, करणी सेना ने खुलेआम बीजेपी का समर्थन नहीं किया, लेकिन राजनीतिक जानकार मानते हैं कि पर्दे के पीछे से उनका साथ बीजेपी को हासिल था। यह घटना उत्तर प्रदेश की जटिल जातिगत राजनीति की कहानी कहती है।

जाति जनगणना का नया अध्याय

जाति जनगणना कराने के निर्णय ने राजनीतिक दलों के बीच एक नई बहस छेड़ दी है। नरेंद्र मोदी सरकार के इस फैसले को अन्य पिछड़ा वर्ग की ओर से व्यापक समर्थन मिला है, लेकिन सपा और कांग्रेस इसे आरक्षण पर खतरे के तौर पर देख रही हैं। इस फैसले ने जातिगत समीकरणों को और भी पेचीदा कर दिया है, जो 2027 की राजनीति में निर्णायक भूमिका निभाएगा।

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पीडीए फार्मूले (PDA formulas) की सपा को मिली ताकत

समाजवादी पार्टी ने पीडीए फार्मूले (PDA formulas) के दम पर बीजेपी को करारी शिकस्त दी थी। लोकसभा इलेक्शन (Lok Sabha elections) की सफलता से सपा के हौसले बुलंद हैं। अखिलेश यादव जोरशोर से इस फार्मूले की बात करते हुए 2027 में सत्ता में वापसी का दावा कर रहे हैं। बीजेपी भी इस चुनौती को गंभीरता से ले रही है और पीडीए के समीकरण को तोड़ने के लिए अपनी रणनीतियों को धार दे रही है।

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उत्तर प्रदेश की राजनीतिक रणभूमि पर अब 2027 के चुनाव तक हर दल अपनी ताकत और कमजोरियों की कसौटी पर खड़ा होगा। सवाल ये है कि कौन किसके फार्मूले को ध्वस्त करेगा और किसका भविष्य चमकेगा ये जवाब हमें चुनावी नतीजों में ही मिलेगा।

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