चुनाव से पहले जुबानी जंग; राणा सांगा से DNA विवाद तक, यूपी की सियासत में गरमाहट बढ़ी
राजनीति में सर्द मौसम अब बीते दिनों की बात है। यूपी में जैसे-जैसे पंचायत और विधानसभा चुनाव की आहट तेज हो रही है नेताओं के बयान और आरोपों में भी तपिश बढ़ती जा रही है। कभी इतिहास के पन्नों से उठाए गए प्रतीक तो कभी जाति और पहचान की रेखाएं, सियासत अब मुद्दों से ज़्यादा शब्दों की तलवारों पर सवार नजर आ रही है।
भीमराव आंबेडकर, राणा सांगा, व्योमिका सिंह और अब ब्रजेश पाठक। हर नाम के साथ एक नई आग और एक नई प्रतिक्रिया। उत्तर प्रदेश में चुनाव भले अभी दूर हों मगर सियासी घमासान ने पहले ही जमीन को गर्म कर दिया है।
राणा सांगा पर टिप्पणी: इतिहास की सियासत
राज्यसभा में समाजवादी पार्टी (सपा) के सांसद रामजीलाल सुमन ने राणा सांगा को लेकर जो टिप्पणी की उसने राजनीतिक गलियारों में हलचल मचा दी। राणा सांगा जिनकी छवि एक वीर राजपूत राजा के रूप में मानी जाती है पर सवाल खड़ा करते ही विभिन्न संगठनों और राजनीतिक दलों की तीखी प्रतिक्रियाएं सामने आने लगीं।
सियासी शास्त्रियों के अनुसार इतिहास को इस तरह सियासी हथियार बनाना संवेदनशील समुदायों में भावनात्मक प्रतिक्रिया पैदा करने की कोशिश हो सकती है। उत्तर प्रदेश की जातीय संरचना और ऐतिहासिक चेतना के संदर्भ में ऐसे बयान गहरे असर छोड़ते हैं।
आंबेडकर-कोलाज विवाद: प्रतीकों का राजनीतिक दोहन
राणा सांगा का मुद्दा अभी ठंडा भी नहीं पड़ा था कि एक नया विवाद भीमराव आंबेडकर और अखिलेश यादव के चेहरे के कोलाज को लेकर सामने आ गया। सोशल मीडिया पर साझा किया गया यह कोलाज न केवल सियासी तूफान का कारण बना बल्कि दलित वोट बैंक को लेकर हो रही रणनीतियों को भी उजागर कर गया।
दलित विचारधारा के साथ आंबेडकर का जुड़ाव किसी से छिपा नहीं है और ऐसे में किसी भी पार्टी द्वारा उनका प्रतीकात्मक उपयोग या तुलना राजनीतिक समीकरणों को प्रभावित कर सकती है। राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि यह महज़ एक कोलाज नहीं बल्कि आगामी चुनावी मोर्चेबंदी की शुरुआत थी।
व्योमिका सिंह पर जातिसूचक टिप्पणी: सेना तक पहुंची सियासत
इंडियन एयर फोर्स की विंग कमांडर व्योमिका सिंह जिन्होंने हाल ही में “ऑपरेशन सिंदूर” को सफलतापूर्वक अंजाम दिया प्रेस कॉन्फ्रेंस में जब पेश हुईं तो देश ने गर्व महसूस किया। मगर सपा नेता रामगोपाल यादव की एक जातिसूचक टिप्पणी ने उस गर्व को विवाद में बदल दिया।
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इस टिप्पणी ने न केवल महिलाओं के प्रति राजनीतिक संवेदनशीलता पर सवाल उठाए बल्कि यह भी दिखाया कि सियासत अब सेना जैसे संस्थानों की गरिमा को भी नहीं छोड़ रही। इस मुद्दे पर तीखी प्रतिक्रियाएं सामने आईं और विपक्ष के साथ-साथ सरकार ने भी इस पर कड़ा ऐतराज़ जताया।
डीएनए विवाद पर बयान से थाने तक
सबसे हालिया विवाद का केंद्र रहे डिप्टी सीएम ब्रजेश पाठक जिन पर सपा के आधिकारिक एक्स (पूर्व ट्विटर) अकाउंट से एक अमर्यादित टिप्पणी की गई। सपा द्वारा यह कहा गया कि “ब्रजेश पाठक अपना डीएनए चेक करवाएं और रिपोर्ट सार्वजनिक करें” मगर जो कुछ बाद में लिखा गया वह इतना अपमानजनक था कि उसे दोहराना भी अनुचित है।
डिप्टी सीएम ब्रजेश पाठक ने न केवल सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव को टैग कर इस पर सवाल उठाए बल्कि यह भी पूछा कि क्या डिंपल यादव इस स्त्री विरोधी मानसिकता को स्वीकार करेंगी। सपा ने बाद में यह पोस्ट हटा तो दिया मगर अंदाज़ में धमकी और चुनौती साफ झलक रही थी।
सपा के आधिकारिक बयान में कहा गया”हम तो पोस्ट डिलीट कर दे रहे हैं मगर आप आइंदा से डीएनए की भाषा का इस्तेमाल करने से पहले सोचिएगा…” इस चेतावनी भरे लहजे ने सियासी संवाद की मर्यादा और सीमाओं पर गंभीर प्रश्न खड़े कर दिए।
कड़वाहट की राजनीति और प्रतिक्रिया की रणनीति
डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य ने इस विवाद को “घिनौना और समाज विरोधी” करार देते हुए सपा अध्यक्ष से माफी की मांग की है। उनके अनुसार जनता इस बार सपा को उसकी “भाषा और व्यवहार” की सजा देगी। वहीं डॉ. लालजी प्रसाद निर्मल जो अनुसूचित जाति वित्त विकास निगम के पूर्व अध्यक्ष हैं ने कहा कि ब्रजेश पाठक की दलित पक्षधरता सपा को हजम नहीं हो रही इसलिए यह हमला किया गया।
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ये घटनाएं केवल व्यक्तिगत हमले नहीं हैं ये चुनावी रणनीति के शतरंज के प्यादे हैं। राजनीति में जब विचारों से अधिक भावनाओं और पहचान की राजनीति हावी होने लगे तो ऐसा माहौल तैयार होता है जहां हर बयान एक हथियार और हर ट्वीट एक हमला बन जाता है।
चुनाव के साये में बयानबाज़ी क्यों बढ़ जाती है
लखनऊ विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर संजय गुप्ता का मानना है कि यह सब चुनावी माहौल का ही हिस्सा है। “राजनीति में इस तरह के व्यक्तिगत हमले नई बात नहीं हैं। जैसे-जैसे चुनाव पास आते हैं भाषा की मर्यादा और तर्कशील संवाद की जगह व्यक्तिगत टकराव और भावनात्मक शोर लेने लगता है।”
वे कहते हैं “भारत ही नहीं कई लोकतांत्रिक देशों में यह ट्रेंड है कि चुनाव आते ही नेताओं की ज़ुबान का स्तर गिर जाता है।”
वर्ष 2026 में पंचायत चुनाव और 2027 में विधानसभा चुनाव प्रस्तावित हैं। जाहिर है ये विवाद महज़ ‘बयान’ नहीं हैंबल्कि राजनीतिक बर्फ के नीचे जल रही चुनावी आग की झलक हैं।
चुनावी लाभ या नैतिक पतन
सवाल यह है कि क्या ये रणनीतियाँ राजनीतिक लाभ दिला पाएंगी या फिर समाज को और अधिक विभाजित करेंगी। जाति पहचान और व्यक्तिगत टिप्पणियों की यह राजनीति किसी पार्टी विशेष की नहीं बल्कि पूरे लोकतंत्र की गिरती हुई भाषा का संकेत है।
जहां एक ओर सामाजिक और राष्ट्रीय मुद्दों की ज़रूरत है वहीं सियासी दल चुनाव जीतने के लिए ऐसे भावनात्मक और आक्रामक हथियारों का सहारा ले रहे हैं जो लोकतंत्र के स्वाभाविक स्वास्थ्य के लिए खतरा हैं।
सियासत गरम है पर लोकतंत्र ठंडा हो रहा है
सियासी पार्टियों की आपसी खींचतान में मुद्दे गायब होते जा रहे हैं और बयानबाज़ी हावी हो रही है। यह परिदृश्य न केवल वोटरों को भ्रमित करता है बल्कि लोकतांत्रिक संवाद को भी खोखला बनाता है। आने वाले दिनों में चुनावी अभियान तेज़ होंगे भाषण और पोस्टों की संख्या बढ़ेगी। पर क्या कभी शब्दों की गरिमा और सियासत की मर्यादा लौटेगी। शायद जवाब हमें चुनाव से नहीं जनचेतना से मिलेगा। जनता को तय करना है कि उन्हें भाषणों की गर्मी चाहिए या मुद्दों की रोशनी।