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जीवन देने वाले जंगल को आप क्या लौटाते हैं?

जब हम जंगलों, पेड़ों, फल-फूलों, परिंदों, जानवरों, नदी, पहाड़ों, झरनों की बात करते हैं तो हमारे होंठों को और दिल को सुकून पहुंचता है। वह इसलिए कि हमने कुदरत की गोद में अपनी जिंदगी के कुछ पल ज़रूर बिताए हैं। पेड़ की घनी छाया में, घास पर लेटकर किताब पढ़ना और पढ़ते- पढ़ते ऊंघ लेना… अगर ये सब तजुर्बे आप ले चुके हैं तो आप क़िस्मतवाले हैं। अन्यथा, अगले दस सालों में आपकी बकेट लिस्ट में ये तजुर्बे इसलिए शामिल होंगे क्योंकि ये सिकुड़कर छोटे हो जाएंगे। यह कहना है हर्षवर्धन का जो लगभग 50 सालों से पर्यावरण के संरक्षण से जुड़े हैं और आज 83 की उम्र में भी जंगलों और वन्य जीवों के संरक्षण के लिए उनकी आवाज़ में बाघ की गुर्राहट की बुलंदी और आंखों में बाज़ जैसी केंद्रित दृष्टि स्पष्ट झलकती है।

 

जब बच्चे ने सुनाया दिल का हाल

एक वाकये से बात शुरू करते हुए हर्षवर्धन बताते हैं कि बर्ड फेयर (Bird Fair) और पर्यावरण संरक्षण (Enviornment Conservation) के लिए मैं अक्सर बच्चों से मिलता हूं। मैंने बातों-बातों में उनसे पूछा कि क्या अब भी स्कूलों में गाय पर निबंध लिखवाते हैं? बच्चों ने कहा- हां। एक गुमसुम से बच्चे ने मुझसे कहा कि गाय पर निबंध में सच लिखने के कोई अंक नहीं मिलते, उल्टे डांट ही पड़ती है।

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मैने उसके मन को टटोलना चाहा तो उसने मासूमियत से कहा कि मैंने परीक्षा में गाय पर निबंध में सच सच लिखा कि गाय को चारा नहीं मिलता इसलिए आजकल वो प्लास्टिक और कचरा खाती है। उसके पास चरागाह नहीं है इसलिए वो सड़कों पर घूमती है। लोग उसे घर की पहली रोटी नहीं, बल्कि बची हुई बासी रोटी खिलाते हैं। इस पर टीचर ने शून्य अंक दिए और मुझे पूरी क्लास के सामने फटकारा। उस नन्हे पर्यावरण सिपाही से मिलकर मुझे लगा कि यही बच्चे धरती के भविष्य को बचा सकते हैं।

स्कूल की दीवार पर था बघेरा

हम बड़ों को कोई हक़ नहीं कि बच्चों से उनकी रंग-बिरंगी जिंदगी छीनकर उन्हें काले और धुएं भरे कल की चाबी थमाएं। वहीं, एक अन्य बच्चे को स्कूल जाने में बहुत घबराहट होती थी। उसने कहा कि स्कूल में बघेरा कभी भी आ जाता है। कई बार उसने स्कूल की दीवार पर बघेरे को बैठे देखा है। उसका डर जायज़ भी है, क्योंकि हमने वन्यजीवों के बसेरे में इतनी घुसपैठ कर ली है कि उन्हें घरों, स्कूलों और खंभों पर आश्रय लेना पड़ रहा है। हम लोगों ने उनके घरों को भी मनोरंजन का साधन बना लिया है।

सोचिए, क्या आप किसी बाघ को अपने बाग़ीचे में टहलने देंगे? नहीं ना! तो जब आप उनके जंगलों में रिज़ॉर्ट बना लेते हैं और उनके इलाक़ों में टहलते हैं या फिर पेड़ों को काट- काटकर विकास के बड़े-बड़े प्रोजेक्ट खड़े कर देते हैं तो कितने बेज़ुबान बेघर हो जाते हैं।

जंगल की बात, पिता के साथ

मुझे लगता है कि अभिभावकों और शिक्षकों को यह जिम्मेदारी लेनी चाहिए कि वो बच्चों को पर्यावरण बचाने के समाधान समझाएं और उनके साथ मिलकर इस दिशा में काम करें। मैं पर्यावरण योद्धा कभी नहीं बन पाता अगर मेरे पिता मुझसे जंगलों की बात नहीं करते, जहां वो हर साल डेढ़ महीने काम करते थे।

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जयपुर के पर्यावरण योद्धा हर्षवर्धन के पिता योगेश्वर चंद्र, महाराज जयसिंह के सचिवालय में काम करते थे। काम के सिलसिले में उन्हें कई बार जंगलों में रहना पड़ता था। वो हमेशा कहते थे कि जंगल वो पनाह है जहां जिंदगी कुदरत के हुक्म पर चलती है।

क्योंकि जंगल उनका घर है…

बक़ौल हर्षवर्धन, पशु-पक्षी सिर्फ़ अपनी ज़रूरत का सामान ही कुदरत से लेते हैं, क्योंकि जंगल उनका घर है- वह बसेरा जिसने उन्हें आसरा दिया। वे इसे लूटकर ख़ाली करने के बारे में कभी नहीं सोचते, बल्कि जाने-अनजाने प्रकृति में जीवन सींचते चले जाते हैं। हमें लगता है कि जंगल के होने या ना होने से कोई फ़र्क नहीं पड़ता, लेकिन जब-जब जंगल ख़त्म होता है तब-तब हमें मान लेना चाहिए कि हमारा अंत भी दूर नहीं।

वो कहते हैं कि आपने देखा होगा कि कैसे प्रकृति रूपी मां की ओढ़नी का नीला-हरा रंग धीरे-धीरे सूखे व बंजर मटमैले रंगों में बदलता जा रहा है। जिस क़दर धूल और गर्माहट भरी लाल काली आंधियां चलती हैं आजकल, लगता है हमारी इस मां को खांसी हो रही है और वो लगातार कई दिनों तक तपने लगी है।

शुक्रिया अदा करें, सेवा करें

मुझे जंगलों, पशु-पक्षियों के संरक्षण से जुड़े कई साल हो गए। मैने बतौर स्वयंसेवी एक छोटी-सी शुरुआत की थी। क्योंकि मैने अपने पिता से यही सीखा था कि जो हमें जीवन देता है, उस जंगल का शुक्रिया करने के साथ-साथ हमें कुछ न कुछ उसे लौटाना चाहिए, भले ही कुछ घंटों की सेवा के ज़रिए मैंने जंगलों में जाना शुरू किया। वहां काम करने वाले लोगों, और ख़ासकर फॉरेस्ट गार्ड से संपर्क बढ़ाया। उनकी ज़रूरतें और परेशानियां समझीं और उन्हें अपनी तरफ़ से छोटे-छोटे संसाधन उपलब्ध करवाना शुरू किया। जंगल के इकोसिस्टम की जो दास्तान वे जानते हैं, उससे वन्यजीवों के बारे में और जंगल के जीवन के बारे में समझना आसान हो जाता है।

मेरी ख़बर हो गई वायरल !

बर्नार्ड तब विश्व वन्यजीव कोष (WWF INTERNATIONAL) के अध्यक्ष थे और इसी वजह से रणथंभौर आए थे। एक सर्द रात को हमने जीप पर लगी टॉर्चलाइट की रोशनी में एक बाघ और बघेरे को शिकार बांटते हुए देखा। ऐसे ही कुछ अनुभवों पर लिखी मेरी ख़बरें कुछ ही घंटों में दुनियाभर में पहुंच गई। कैलाश सांखला से भी मेरी पहली मुलाक़ात वहीं पर हुई जिसके बाद हमारे मिलने और साथ काम करने का सिलसिला आगे बढ़ा।

पांच साल बाद प्रोजेक्ट डायरेक्टर के पद से मुक्त होकर वे राजस्थान वापस आए और जयपुर में चीफ़ वाइल्ड लाइफ़ वॉर्डन रहे। उनके साथ वाइल्डलाइफ़ बोर्ड की कई बैठकों में मैं शामिल हुआ। हम दोनों को कहीं न कहीं यह महसूस हो गया था कि जंगल और पर्यावरण के प्रति हमारा प्यार, बल्कि हमारी आस्था में एक समानता थी और इसलिए हम दोनों के दरमियां रिश्ता मज़बूत हुआ। वो अच्छे लेखक और फोटोग्राफ़र थे। उनके हसल ब्लेड कैमरे में क़ैद हुई जंगलों की तस्वीरें इतनी ज़िंदा लगती थीं मानो बोल उठेंगी। उनसे हाथ मिलाकर मैं पर्यावरण के साथ-साथ बाघों के संरक्षण से भी जुड़ गया।

विजय गर्ग
सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट पंजाब

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